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स ह॑व्य॒वाळम॑र्त्य उ॒शिग्दू॒तश्चनो॑हितः। अ॒ग्निर्धि॒या समृ॑ण्वति॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa havyavāḻ amartya uśig dūtaś canohitaḥ | agnir dhiyā sam ṛṇvati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। ह॒व्य॒ऽवाट्। अम॑र्त्यः। उ॒शिक्। दू॒तः। चनः॑ऽहितः। अ॒ग्निः। धि॒या। सम्। ऋ॒ण्व॒ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:11» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो पुरुष (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी (हव्यवाट्) ग्रहण करने योग्य हवनसामग्री को प्राप्त (अमर्त्यः) मरणरूप धर्म से रहित (उशिक्) कामना करता हुआ (दूतः) अविद्या आदि से पृथक् दूर विद्या को प्राप्त करानेवाला (चनोहितः) अन्नादिकों में वृद्धिरूप हितकर्म करनेवाला विद्वान् पुरुष (धिया) सुकर्म से वा उत्तम बुद्धि से (सम्) (ऋण्वति) चलता वा श्रेष्ठ बुद्धियुक्त होकर उन कर्मों को जानता है (सः) वही पुरुष हम लोगों को शिक्षा कर सकता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि अपने व्यापार से दूत के सदृश कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे ही विद्वान् लोग राज्य के कार्य्य आदिकों को सिद्ध कर सकते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

योऽग्निरिव हव्यवाडमर्त्य उशिग्दूतश्चनोहितो विद्वान् धिया समृण्वति स एवास्मान् शिक्षयितुं शक्नोति ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स) (हव्यवाट्) यो हव्यान् दातुमर्हाणि वस्तूनि वहति प्राप्नोति (अमर्त्यः) मरणधर्मरहितः (उशिक्) कामयमानः (दूतः) अविद्यायाः पारे विद्याया गमयिता (चनोहितः) चनःस्वन्नादिषु हितो हितकारी (अग्निः) पावकइव (धिया) कर्मणा प्रज्ञया वा (सम्) (ऋण्वति) गच्छति जानाति वा ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निः स्वकर्मणा दूतवत् कार्य्याणि साध्नोति तथैव विद्वांसो राजकार्य्यादीनि साद्धुं शक्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी आपल्या व्यवहाराने दूतासारखे कार्य सिद्ध करतो, तसेच विद्वान लोक राज्याचे कार्य इत्यादींना सिद्ध करू शकतात. ॥ २ ॥